मेघालय राज्य की राजधानी शिलांग से 28 किलोमीटर का सफ़र तय करने के बाद मावफलांग गाँव आता हैं। ईस्ट खासी हिल्स जिले में पड़ने वाला यह गाँव, जयंतिया और खासी पहाड़ियों के बीच पड़ता हैं। यह खासी आदिवासी समुदाय द्वारा 800 सालों से अधिक समय तक सहेज कर रखे गए पवित्र वन के लिए विश्व प्रसिद्ध हैं।
इस वन को भारत का पहला ‘रेड’ प्रोजेक्ट हासिल करने का गौरव प्राप्त हैं। मार्च महीने की एक शाम, जब समुद्र तल से 1500 मीटर ऊँचाई पर स्थित यह वन अगले महीने के अंत तक होने वाली वर्षा की बाँट जोह रहा हैं, मैं अपने गाइड सन लिंगदोह के साथ पवित्र वन की सैर पर निकल आता हूँ।
गाइड वन में प्रवेश और अन्दर के नियमों से मुझे पहले ही अवगत करवा देता हैं। वन के अन्दर टॉयलेट करना, थूकना या अन्य किसी प्रकार की गंदगी फैलाना प्रतिबंधित हैं। वन के अन्दर या बाहर से कोई भी वस्तु लाना या ले जाना मना हैं। हालांकि वनोत्पाद जैसे फल व जड़ी-बूटी का वन के अन्दर ही खाने या उपभोग की अनुमति हैं।
वृक्षों की घनी कैनोपी सदाबहार वनों की तरह धरातल तक सूर्य किरणों को पहुँचने से रोकती हैं।
पवित्र वन के अंदर ‘हिमा’ के राजा, अपने देवता ‘लिबासा’ की उपासना करते हैं। प्रवेश से पहले हिमा के खासी लोग वन के प्रवेश पर रखे मोनोलिथ पर पूजा की तैयारी करते हैं। वे यही पर स्वयं को स्वच्छ बनाते हैं।
हिमा, खासी समुदाय में कई गाँवों को मिलाकर बना स्थानीय लोकतंत्र हैं। प्रत्येक हिमा का एक राजा होता हैं। और लिबासा, खासी समुदाय का देवता हैं। राजा ही पूजा के लिए अधिकृत व्यक्ति होता हैं।
यह जंगल पवित्र आत्माओं का घर हैं। जो खासी लोगों की सदियों से आपदाओं से रक्षा करते रहे हैं। यहाँ तक कि खासियों का विश्वास हैं कि हिमा और लिबासा का एक दूसरे के बिना कोई अस्तित्व नहीं हैं। और यह वन लिबासा का घर हैं। इसलिए सामुदायिक भागीदारी के तौर पर आज तक इन वनों का संरक्षण होता आया हैं। पूजा के लिए महिलाओं का वन में प्रवेश मना हैं।
वन के अन्दर राजा की ताजपोशी की जगह निर्धारित हैं।
ताजपोशी के बाद वह पूजा करता हैं।
पहले, देवता को बैल यानि सांड की बलि देने का रिवाज था। वर्तमान में, यहाँ मुर्गे यानि कॉक की बलि ही दी जाती हैं। जिसका सामुदायिक भोज अन्दर ही पकाया जाता हैं, बाहर से अन्दर कोई सामान जैसे मसाले, तेल आदि नहीं ला पाने के कारण यह उबला हुआ मांस ही होता हैं। देवता अगर पूजा को स्वीकार कर लेता हैं तो पैंथर के रूप में आता हैं, वरना सर्प के रूप में आता हैं।
इन लोक किवदंतियों को सुनकर रोमांचित अनुभव हो रहा था। गाइड सन लिंगदोह ने हरेक जगह के रिवाज और उनका महत्त्व को समझाया। यह वन 77 हेक्टर में फैला हुआ हैं। पक्षियों की चहचहाहट और भंवरों का गुंजन कानों में मधुर संगीत घोलता हैं। तितलियों का रंग-विरंगा संसार भी यहां हैं। वन के बीच से एक सदाबहार दरिया बहता हैं। जिसकी बहाव गति मार्च महीने तक आते आते कम हो जाती हैं।
सूखे और गिरे हुए पेड़ अपनी जगह रखे हैं। इस वन की मौलिकता का एक प्रमुख कारण यह रहा हैं कि यहाँ से कुछ अन्दर-बाहर लाया या ले जाया नहीं जा सकता।
यहाँ सैकड़ों किस्म के दुर्लभतम वृक्ष, खूबसूरत फूल, फलों के वृक्ष, आर्किड, फ़र व मोस मौजूद हैं।
एक अध्ययन में पता चला कि कुछ वृक्ष जो अन्य जगह से विलुप्त हो चुके हैं यहाँ अभी भी पाए जाते हैं। हिन्दू धर्म में पवित्र माने जाने वाले रुद्राक्ष का वृक्ष भी मिलता हैं, जो विशिष्ट लक्षणों के कारण भारत के रुद्राक्ष किस्मों से भिन्न हैं।
खासी पाइन वृक्ष सबसे प्रसिद्ध हैं। कुछ ऐसे वृक्ष भी मौजूद हैं जिनकी आयु 400-800 बर्ष तक पुरानी हैं।
यहाँ मौजूद वृक्षों से हृदय, पेट, कैंसर और एलर्जी जैसी गंभीर बिमारियों के इलाज में मदद मिलती हैं। मेघालय में ऐसे अनेक पवित्र वन हैं जो न केवल जैव विविधता के संरक्षण बल्कि जलवायु परिवर्तन से लड़ने में हथियार बने हुए हैं। आदिवासी समुदायों की इन विरासत को मॉडल के तौर पर अन्य जगह संरेखित किया जाना जरूरी हैं। ताकि हम हरित आवरण को बनाये रखने में सफल हो।
पिछले दिनों जब प्रधानमंत्री नरेन्द्र मोदी मेघालय दौरे पर थे, उन्होंने अपने व्यस्त कार्यक्रम के बावजूद मावफलांग के पवित्र वन में 3 घंटे व्यतीत किये थे। मोदी ने उन तरीकों की प्रशंसा की जिनसे स्वदेशी समुदायों ने अपने रिवाज़ों और परंपराओं को बनाए रखा हैं।
[…] प्रसिद्ध और खूबसूरत गाँव हैं।यह गाँव मावफलांग सेक्रेड ग्रोव (पवित्र वन), डेविड स्कॉट […]
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[…] 2018 को पंहुचा था। वहां से अगले दिन मावफलांग पहुँचा। मावफलांग से मधुर यादों के […]
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