सुबह 6 बजे तुरा शहर मॉर्निंग वाक पर था, मैं होटल से चेक-आउट कर नोकरेक नेशनल पार्क (दरिबोकगरे बेस कैम्प) के लिए रवाना हो रहा था। तुरा गारो हिल्स का सबसे बड़ा शहर है, इसे मेघालय की दूसरी राजधानी भी माना जाता है। यही से पूर्व लोकसभा अध्यक्ष पी.ए. संगमा लोकसभा जाते थे। यहाँ की कहानी, गारो योद्धाओं की शौर्य गाथा के बखान के बिना अधूरी है, इसलिए हम नोकरेक-सीजू की यात्रा में यह कहानी बतायेंगे। तुरा-विलियमनगर मार्ग पर 30 किमी चलने पर ओरगीटोक गाँव आता है, यही से दरिबोकगरे के लिए दाहिना मोड़ लेते हैं। ओरगीटोक से आगे कच्ची सड़क आ जाती है, यह सड़क सदाबहार वनों से जाती हैं। दूर दूर तक इंसान नजर नही आता है, केवल जंगली जानवरों की आवाजें आपका साथ देती हैं।

मेघालय के जंगल आज भी मूल स्वरूप में है, जो बहुत से रहस्यों को अपने में समेटे हुए हैं। जंगलों में विचित्र तरह के जीव-जन्तु रहते है जिसके लिए यह विश्व प्रसिद्ध है। इन ही जंगलों में पिछले दो दिन से मैं एक पक्षी की आवाज सुन रहा था वो यहां भी है (हालांकि उस पक्षी पूरे मेघालय यात्रा में देख नहीं पाया)।
ऒरगीटोक से दरिबोकगरे तक 2-3 गांव आते हैं। दरीबोकगरे गांव में जाकर सड़क बंद हो जाती है। तुरा से 40 किलोमीटर का रास्ता तय करते करते आठ बज गए थे। मैं एक खेल के मैदान में आकर रुक गया। उसके लगते ही एक चेक पोस्ट है। लेकिन वहां कोई व्यक्ति नजर नही आया। फिर बाइक का हॉर्न बजाने पर एक व्यक्ति बाहर निकल कर आया। मैंने उससे अंग्रेजी में नोकरेक के लिए गाइड के बारे में पूछा। उसने कोई उत्तर नही दिया, लेकिन वह मुझे कुछ आगे ले गया। जहां एक फारेस्ट गार्ड बैठा था। मैंने उनसे बातचीत शुरू की। वह भी कुछ समझा नहीं। दरअसल मुझे लगा इन लोगों को हिंदी नहीं आती होगी, इसलिए मैं अंग्रेजी में पूछताछ कर रहा था। फिर वो मुझे थोड़ी आगे बने बालकासिन होम-स्टे तक ले गया। वहीं पता चला कि उसे हिंदी आती हैं अंग्रेजी नही। आगे वही व्यक्ति ही मेरा गाइड हुआ।

मेरा गाइड टूटी-फूटी हिंदी बोल लेता था, हालांकि उसने कभी हिंदी की औपचारिक शिक्षा नहीं ली थी। हिंदी के लिए मेघालय के निवासियों के इस जज़्बे का सम्मान करता रहा हूँ। बालकासिन होम-स्टे में ही नाश्ता ऑर्डर कर दिया। नाश्ता करके 9 बजे नोकरेक चोटी (समुद्रतट से 1412 मीटर ऊंचाई) के लिए रवाना हो गए, जो करीब 5-6 किलोमीटर हैं। लेकिन 1-2 किमी बाइक जा सकती हैं। हम पार्क में प्रवेश-संबंधी औपचारिकता पूरी करके बाइक लेकर ही आगे बढ़े। रास्ता पगडंडी जैसा था। एक बार बाइक फिसल भी गई। नेशनल पार्क के प्रवेश बिंदु पर बाइक खड़ी कर ट्रैकिंग पर शुरू कर दी।

नोकरेक चोटी के ट्रेक की शुरुआत से ही एक विचित्र शोर सुनाई दे रहा था, मैंने अनुमान लगाया कि ये हूलोक गिबन हो सकते हैं। जब मैंने गाइड से पूछा तो मेरा अनुमान सही निकला। उसने बताया गारो भाषा में इसे हूरु कहते है, इनकी आवाज 3-4 मील तक जाती है। मेरी मन था कि इन्हें देखा जाए, लेकिन आवाज़ बहुत दूर से आ रही थी। हम धीरे-धीरे चोटी की ओर बढ़ रहे थे। मैं मेघालय के सदाबहार वनों में था, जो भारत में सर्वाधिक वर्षा के लिए मशहूर है। यहाँ वृक्ष की घनी छाया में सूर्य की रौशनी भी नजर नहीं आती, इसलिए पर्याप्त रौशनी के अभाव में जानवरों, पक्षियों व तितलियों के फोटो ले पाना मेरे लिए असंभव कार्य रहा। घने जंगल में ट्रैकिंग का मेरा पहला अनुभव था, इसलिए रोमांच चरम पर था। हमने रुककर पक्षियों की आवाज़ को ट्रेस करना चाहा, लेकिन कोई खास सफलता नही मिली। रास्ते में सूखे पुराने वृक्ष इधर उधर बिखरे पड़े थे। पानी के स्रोत अब कम ही बचे हैं, नोकरेक मानसून का इंतज़ार कर रहा है।


तक़रीबन 2 घंटे की आसान ट्रैकिंग के बाद गाइड ने कहा हम चोटी [समुद्रतट से 1412 मीटर] पर है। लेकिन मैंने तो खुद को विशाल वृक्षों के नीचे खड़ा पाया। चोटी पर पहुंचने जैसा कुछ एहसास नही हुआ। तभी गाइड ने वाच टावर की ओर इशारा किया। और इस वाच टावर पर चढ़ के जो मैंने देखा, उसे मैं निहारता ही रह गया। जहाँ तक नज़र पहुंच रही थी, प्रकृति का हरित शामियाना था। यह पल मेरे लिए कल्पनाशून्य था। मन खुशी से नाच उठा। पक्षियों की चहचहाहट थी, शीतल समीर के झोंके मन की वीणा के तारों को छेड़ रहे थे। मैंने आंखे बंद करके इस कर्णप्रिय संगीत को दिल की गहराई तक महसूस किया। फिर आंखे खोलकर देखा तो खुद को इस अंतहीन जंगल में एक तिनके की तरह पाया। वृक्षों पर लतायें इस तरह लिपटी थी, जैसे प्रेमपूर्ण आलिंगन कर रही हो। कुछ वृक्ष अपनी जगह से झुके-उखड़े हुए थे, उन्हें साथी वृक्ष सहारा दे रहे थे। प्रकृति इतनी भी खूबसूरत हो सकती है, मेरा आश्चर्य का ठिकाना नहीं था।

हमने वहां थोड़ा समय बिताया। फिर वापस नीचे की तरफ उतरने लगे। वापसी पर ढलान थी इसलिए कम ही समय में वापस दरिबोकगरे आ गए। इसी दौरान मेरे गाइड ने बताया गाँव के स्कूल के पास हूलोक गिबन दोपहर के आसपास आते हैं, अगर हमारी किस्मत अच्छी हुई तो देखने का अवसर ज़रुर मिलेगा। हमने वहां जाकर इधर उधर तलाशने की कोशिश की लेकिन असफलता ही मिली।

मेरा गाइड गारो शैली में निर्मित अपने घर ले आया। इन घरों को बांस की लकड़ी से बनाया जाता है। गारो परिधान में सजी उसकी पत्नी मुस्कराते हुए चाय लेकर आई। थोड़ी ही देर में उसने भोजन भी लगा दिया। खाने में दाल, चावल और चिकन था। खाने की खुशबू से मुँह में लार आ रही थी। लेकिन मैं नॉन-वेज नहीं खाता हूँ इस लिए चिकन नहीं खाया। दरअसल हुआ यूं था जब हम नोकरेक चोटी पर जा रहे थे, तब मुझे बिना बताए दोपहर के खाने के लिए मेरा गाइड अपनी पत्नी को बोल कर गया था। मैंने दाल-चावल खाये जो बेहद स्वादिष्ट थे। मैं खाना ख़त्म ही करने वाला था कि गाइड की पत्नी ने हमें बताया हूलोक गिबन आ गए हैं। आहिस्ता-आहिस्ता हम अपनी मौजूदगी का आभास करवाये बिना उनके करीब पहुँच गए। यह चार सदस्यीय परिवार था। जो मेघालय का स्थानीय फल सोहशांग खाने में व्यस्त था। माता अपने बच्चे हो सीने से चिपकाए थी। हमारी उपस्थिति का आभास होने पर कूदते -फांदते वह परिवार आंखों के सामने से ओझल हो गया। इसी बीच मैं कैमरे में कुछ तस्वीरें उतारने में सफल हुआ।


इसके बाद, हमने गारो नारंगी और झूम खेती देखी। गारो पहाड़ियां सिट्रस जीन पूल के लिए विश्व प्रसिद्ध हैं। भारत में सिट्रस फलों का यहीं से उद्भव माना जाता हैं। मेघालय में स्थानांतरित कृषि की जाती हैं, जिसे झूम कृषि कहा जाता है। इसके लिए स्थानीय लोग वनों की कटाई करके उसमें आग लगा देते हैं फिर उस जमीन पर 7-8 वर्ष खेती करते हैं। उसे बाद इस जमीन को छोड़ कर नई जगह चले जाते हैं। तब छोड़ी गई जगह पर पुनः जंगल उग आता है। खेती में सुपारी, अदरक, धान, तेज पत्ता, केला जैसी नगदी फ़सलें प्रमुख हैं।


अब लग रहा था नोकरेक यात्रा सफल हो गई। इस यात्रा की सफलता ने आगे के लिए मेरा मनोबल बढ़ाने का काम किया। आज मन था कि यहां रात्रि विश्राम किया जाए। कुछेक घंटों में यहाँ लोगों से जुड़ाव हो गया था। लेकिन सफर लम्बा था, अनेक मंज़िलें थी। इसलिए दोपहर बाद यहां से निकल कर सीजू (बाघमारा), जो साउथ गारो हिल्स जिले में आता है, के लिए रवाना हो गया।
पुनःश्च: हम उत्तर-पूर्व भारत के निवासियों के प्रति भले ही नकारात्मक पूर्वाग्रही रवैये से भरे होते है, लेकिन सच्चाई कुछ अलग ही है। यहाँ बड़े भोले भाले लोग हैं। इनका बर्ताव आत्मीय है, लालच अभी इनकी आँखों में नहीं हैं। मेहमान नवाजी भी अव्वल दर्जे की है। पर्यटन के नाम पर लूट बिलकुल भी नहीं है। खाना और रहना एकदम सस्ता और स्वादिष्ट है। स्वभाव से थोड़े शर्मीले जरूर है, फिर भी मददगार प्रकृति के होते है।
[फैक्ट चेक : गारो हिल्स और नोकरेक नेशनल पार्क
मेघालय पठार तीन हिस्सों में बंटा है- गारो पहाड़ियां, खासी पहाड़ियाँ और जयंतिया पहाड़ियां। इन पहाड़ियों का नामकरण यहाँ रहने वाली जनजातियों के नाम पर हुआ हैं। गारो पहाड़ियां गारो जनजाति बाहुल्य है। गारो अब ज्यादातर ईसाई हैं। लेकिन इससे पहले ये प्रकृति-उपासक थे। गारो समाज मातृवंशीय होता है। पहले गाँव में बैचलर डोर्मेटरी हुआ करते थे जहाँ युवक-युवती जीवनयापन के तरीके सीखते और वही अपना जीवनसाथी चुनते थे। लेकिन अब बैचलर डोर्मेटरी ग़ायब हो चुके हैं। शादी के इच्छुक युगल अपने परिवार के सामने शादी का प्रस्ताव रखते हैं। शादी हो जाने पर लड़की का ससुराल में जाना बाध्यकारी नहीं है। लड़का भी ससुराल में रहता है। यही आम-प्रचलन है। लेकिन सगोत्र विवाह प्रतिबंधित है। यानी यह एक खुला समाज है।
नोकरेक नेशनल पार्क, नोकरेक बायोस्फियर रिज़र्व का कोर एरिया है। इसका नामकरण गारो पहाड़ियों की सबसे ऊँची चोटी नोकरेक के नाम पर हुआ है। जिसकी ऊँचाई 1412 मीटर है। यूनेस्को ने 2009 में नोकरेक नेशनल पार्क से लेकर बालपक्रम नेशनल पार्क तक के भू-भाग को नोकरेक बायोस्फियर रिज़र्व का दर्जा दिया। यहां विशिष्ट पादप और वन्य-जीव प्रजातियों मिलते हैं। यह हूलोक गिबन बंदर और अनेक प्रकार की नारंगियों (ऑरेंज)की प्रजातियों के प्रसिद्ध है। अनेक प्रकार के पक्षी पाए जाते हैं। ]
नोकरेक किस तरह पहुँचा जाएं?
तुरा से दरिबोकगरे (समुद्रतट से ऊंचाई 1250 मीटर) की दूरी 37 किलोमीटर है। दरिबोकगरे से 5-6 किलोमीटर की ट्रैकिंग करके गारो हिल्स की सबसे ऊँची चोटी नोकरेक (1412 मीटर) पर पहुंचा जा सकता है। यह नोकरेक नेशनल पार्क के मध्य स्थित है।

रुकने के लिए होटल?
यहाँ दरिबोकगरे कम्युनिटी गेस्ट हाउस है। इसके अलावा बालकासिन होम-स्टे, दरिबोकगरे है।
नोकरेक जाने का बेस्ट सीजन?
यूँ तो यहाँ सालभर घूमने का मौसम होता है फिर भी सितंबर से फरवरी सबसे उपयुक्त समय होता है।