मुरैना में आने से पहले चंबल के बीहड़ों की खतरनाक छवि मेरे मन में थी। मूलतः यह छवि भारतीय सिनेमा से प्रेरित थी। यहां आने से पहले बताया गया था कि सूरज ढलने से पहले ही यात्रा को विराम देना सुरक्षित रहेगा। इस हिदायत का पूरा ध्यान भी रखा गया। लेकिन इस यात्रा ने मुझे बीहड़ में स्फुटित हो रहे जीवन को जानने और उसे महसूस करने का सुनहरा अवसर दिया। स्थानीय लोगों से बीते दौर और वर्तमान के हालातों पर चर्चा हुई तो इस निष्कर्ष पर पहुंचा कि कठिन दौर बीत चुका है तथा अब हालात सामान्य हो चुके हैं। हालांकि क्षेत्र में बंदूक की संस्कृति आज भी जिंदा है। लोग खुले तौर पर बंदूक अपने साथ लेकर घूमते हैं। सरकारी प्रयासों से बीहड़ों को काफी हद तक खेती के लायक बनाया जा चुका है जिसमे लहलहाती फसलें क्षेत्र की समृद्धि को बढ़ा रही है। इस यात्रा ने न केवल बीहड़ों के प्रति व्याप्त भ्रांतियों को दूर किया बल्कि बटेसर, मितावली और ककनमठ जैसे महान मंदिरों का सौंदर्य और भव्यता से भी परिचय करवाया। इस यात्रा में मेरे साथ है नीरज। यात्रा वृतांत के इस भाग में हम बटेसर मंदिर परिसर का भ्रमण करेंगे।
हम मुरैना जिले में स्थित पढ़ावली ग्राम स्थित बटेसर मंदिर परिसर में सुबह 11 बजे पहुँचे। यह निर्जन सा नजर आने वाला स्थान दूर से जंगल से घिरी पहाड़ी तलहटी भर नजर आता है। इस परिसर में प्रवेश करते ही सबसे पहले भगवान विष्णु को समर्पित मंदिर आता है। थोड़ा ओर आगे बढ़े तो सामान्य सी दिखने वाली यह जगह असाधारण मंदिरों के परिसर में बदल गई। इन्हें देखकर एक बार तो व्यक्ति दाँतों तले अंगुली दबा लेता है। इस शानदार वास्तुकला के पीछे गौरवशाली इतिहास है। 8वीं सदीं में भारत में गुर्जर-प्रतिहार साम्राज्य का उदय हुआ। यह 13वीं सदी तक चला। इसका विस्तार भारत में राजस्थान-गुजरात से लेकर बंगाल की पश्चिमी सीमा तक था। इस दौरान समाज-संस्कृति-धर्म-कला में महत्वपूर्ण प्रगति देखी गई। विशेषतः स्थापत्य कला के क्षेत्र में अद्वितीय मंदिरों का निर्माण हुआ है। इसके मुख्य अवशेष है राजौर (सरिस्का) का नीलकंठ, सिहोनीया का ककनमठ, ग्वालियर के जैन मंदिर, आभानेरी का हर्षद माता व चाँद बावड़ी तथा पढ़ावली के बटेसर मंदिर समूह। बटेसर मंदिर समूह भारत में मंदिरों की संख्या के लिहाज से सबसे बड़ा मंदिर परिसर था। यहां का निर्माणकाल 6 से 9 वीं सदी का है।


इस परिसर मेंमें लगभग 200 मंदिरों का निर्माण किया गया था उनमे अधिकांशत: पंच रथ शैली के थे। 13 वीं शताब्दी के बाद ये मंदिर नष्ट हो गए; यह स्पष्ट नहीं है कि यह भूकंप या मुस्लिम बलों द्वारा किया गया था। मंदिरों के समूह में सबसे बड़ा मंदिर भगवान शिव को समर्पित भूतेश्वर मंदिर था। कालांतर में इसी मंदिर के नाम से ही इस परिसर को बटेसर के नाम से पहचाना जाने लगा। इसके लगता एक अन्य मंदिर भी है जो मूलत: भगवान विष्णु को समर्पित था। मंदिर के दोनों ओर गंगा और यमुना नदी देवी रूप में विराजमान है। इस परिसर में कुछ मंदिरों में कीर्ति-मुख पर नटराज विराजमान मिलते है व शिव-पार्वती के विवाह के दृश्यों का शानदार चित्रण देखने को मिलता है। कहीं कहीं मिथुन, काम के दृश्य भी उकेरे गए है। उपलब्ध साक्ष्यों के आधार पर विद्वान इस बात पर सहमत है कि कभी ये क्षेत्र मंदिर से संबंधित कला और कलाकारों का केंद्र था।

लगभग 700 साल की गुमनामी के बाद इन मंदिरों के स्वर्णिम दौर को पुन: लौटाने के लिए 2005 में, एएसआई भोपाल के क्षेत्रीय निदेशक श्री के॰ के॰ मोहम्मद के नेतृत्व में महत्वाकांशी परियोजना शुरू हुई। यह स्थान उस समय भग्नावशेषों का मलबा भर था। उनके सामने दो चुनौतियों थी- एक चंबल के खूंखार डैकतों से कैसे निपटा जाए और दूसरा पत्थरों के ढेर से मंदिरों को कैसे तराशा जाए। उन दिनों डकैत निर्भय सिंह गुर्जर की चंबल में समानांतर सरकार चलती थी। उसकी इजाज़त के बिना चंबल में एक पत्ता भी नहीं हिलता था। मोहम्मद ने इस मामले में चतुराई से काम लिया और वे निर्भय गुर्जर को यकीन दिलाने में कामयाब रहे कि इन मंदिरों का संबंध उसके पूर्वजों यानि गुर्जर राजाओं से रहा है। संशय के साथ निर्भय गुर्जर ने केवल चार मंदिरों के जीर्णोद्धार की इजाज़त दी। बाद में निर्भय गुर्जर और उसके साथी एक पुलिस मुठभेड़ में मारे गए तो यहाँ काम करना आसान हो गया। लेकिन कुछ समय में ही खनन माफिया इस विरासत के आसपास अवैध खनन को अंजाम देने लगा तो मोहम्मद की उनसे टकराहट होने लगी। फिर उन्होंने तत्कालीन आरएसएस प्रमुख केएस सुदर्शन से मदद मांगी। सरकार पर दबाव बढ़ाया गया तब कहीं मंदिरों का जीर्णोंद्धार संभव हुआ।


यह वन मैन शो था। जिसे मोहम्मद ने बखूबी निभाया और इतिहास मे अपना स्थान दर्ज करवा लिया। अभी तक करीब 60 मंदिरों को वास्तविक स्वरूप में लाया जा चुका है। लेकिन दुर्भाग्यवश मोहम्मद की सेवानिवृति के बाद मंदिरों का जीर्णोद्धार बंद हो चुका है। न केवल बटेसर बल्कि भारत में ऐसे कितने ही मंदिर है जो जीर्णोद्धार के अपने “के॰के॰ मोहम्मद” का इंतजार कर रहे हैं।


बटेसर मंदिरों को निहारते हुए वक़्त तेजी निकल गया। यह इतिहास का एक झरोखा है जिससे झांकना टाइम ट्रेवल करने जैसा है। यहाँ प्रकृति का रूप भी मनोरम है। परिसर में राष्ट्रीय पक्षी मोर की भरमार है, उनका नृत्य आनंद की अनुभूति देता है।


बटेसर मंदिर तक पहुँचने के लिए प्राइवेट टैक्सी ही विकल्प है। यह स्थान मुरैना और ग्वालियर से लगभग 30-35 किमी की दूरी पर है। आसपास होटल नहीं है। गर्मी के दिनों में यात्रा से बचना चाहिए बाकी महीनों में मौसम सुहाना रहता है।
